11.7.16

इस्लाम में पड़ोसी के अधिकार


हजरत मुहम्मद सल्ल. ने पड़ोसियों की खोज खबर लेने की बड़ी ताकीद की है और इस बात पर बहुत बल दिया है कि कोई मुसलमान अपने पड़ोसी के कष्ट और दुख से बेखबर ना रहे। एक अवसर पर आपने फरमाया-' वह मोमिन नहीं जो खुद पेट भर खाकर सोए और उसकी बगल में उसका पड़ोसी भृूखा रहे।'
इस्लाम में पड़ोसी के साथ अच्छे व्यवहार पर बड़ा बल दिया गया है। परंतु इसका  उद्देश्य यह नहीं है कि पड़ोसी की सहायता करने से  पड़ोसी भी समय पर काम आए,  अपितु इसे एक मानवीय कत्र्तव्य ठहराया गया है। इसे आवश्यक करार दिया गया है और यह  कत्र्तव्य पड़ोसी ही तक सीमित नहीं है बल्कि किसी साधारण मनुष्य से भी असम्मानजनक व्यवहार न करने की ताकीद की गई है।
पवित्र कुरआन में लिखा है-'और लोगों से बेरुखी न कर।' (कुरआन, ३१:१८)         
पड़ोसी के साथ अच्छे व्यवहार का विशेष रूप से आदेश है। न केवल निकटतम पड़ोसी के साथ, बल्कि दूर वाले पड़ोसी के साथ भी अच्छे व्यवहार की ताकीद आई है। सुनिए-
 ' और अच्छा व्यवहार करते रहो माता-पिता के साथ, सगे संबंधियों के साथ, अबलाओं के साथ, दीन-दुखियों के साथ, निकटतम और दूर के पड़ोसियों के साथ भी।         (कुरआन, ४:३६)
पड़ोसियों के साथ अच्छे व्यवहार के कई कारण हैं- एक विशेष बात यह है कि मनुष्य को हानि पहुंचने की आशंका भी उसी व्यक्ति से अधिक होती है जो निकट हो। इसलिए उसके संबंध को सुदृढ और अच्छा बनाना एक महत्वपूर्ण धार्मिक कत्र्तव्य है ताकि पड़ोसी सुख और प्रसन्नता का साधन हो न कि दुख और कष्ट का कारण।

4.6.16

मशहूर बॉक्सर मोहम्मद अली नहीं रहे

इस्लाम में मिला दिली सुकून-मुहम्मद अली

मैंने इस्लाम का कई महीनों तक गहन अध्ययन किया और मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि इस्लाम सच्चा धर्म है, जो प्रकाशमान है।
                                 - मुहम्मद अली
दुनिया के तीन बार हैविवेट चैम्पियन रह चुके अमेरिका के मशहूर बॉक्सर
दुनिया के तीन बार हैविवेट चैम्पियन रह चुके अमेरिका के मशहूर बॉक्सर कैशियस क्ले जब इस्लाम कबूल करके मुहम्मद अली बने तो अमेरिका में मानो तूफान आ गया। मुहम्मद अली का इस्लाम में दाखिल होना अमेरिका में इस्लाम के फैलने में महत्वपूर्ण कदम साबित हुआ। इस घटना से अमेरिका में चमात्कारिक रूप से इस्लाम के आगे बढऩे में कामयाबी मिली। १७ जनवरी १९४२ को जन्मे मुहम्मद अली २२ साल की उम्र में १९६४ में इस्लाम के आगोश में आ गए।
२७ फरवरी १९६४ को मुहम्मद अली ने एसोसिएटेड प्रेस के सामने इस्लाम धर्म अपनाने का ऐलान किया। यहां पेश है उस वक्त एसोसिएटेड प्रेस के सामने मुहम्मद अली का किया गया खुलासा।मुहम्मद अली ने बताया कि आज उन्होने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया है। इस्लाम वह रास्ता है जिसमें आपको हरदम सुकून व चैन मिलता है।बाईस वर्षीय क्ले ने कहा-वे ऐसे मुसलमानों को काले मुसलमान कहते हैं,दरअसल यह यहां की प्रैस का दिया हुआ शब्द है।
यह नाम उचित नहीं है। इस्लाम तो ऐसा धर्म है जिसके मानने वाले दुनियाभर में करोड़ों लोग हैं और मैं भी उनमें से एक हूंइस्लाम सच्चा धर्म
 मैंने इस्लाम का कई महीनों तक गहन अध्ययन किया और मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि इस्लाम सच्चा धर्म है जो प्रकाशमान है। जैसे एक पक्षी रात में रोशनी को देखकर चहचहाने लगता है और अंधेरे में चुप रहता है। अब मुझे भी रोशनी नजर आ गई है और मैं भी खुशी से चहचहा रहा हूं।जब मुहम्मद अली से पूछा गया कि लोग आपके धर्म परिवर्तन के बारे में जानने के बहुत इच्छुक हैं तो उनका जवाब था-लोग दूसरों के धर्म के बारे में जानना नहीं चाहते लेकिन वे मेरे धर्म के बारे में जानना चाहते हैं क्योंकि मैं चैम्पियन हूं। मैं विश्व विजेता हूं, इस वजह से पूरी दुनिया मेरे धर्म परिवर्तन को लेकर आश्चर्यचकित है।

28.3.16

मैं महिलावादी हूं और पर्दा करने पर फख्र है-थेरेसा कार्बिन


थेरेसा कार्बिन एक लेखिका हैं। ये ऑरलियंस, लुइसियाना में रहती हैं और इस्लामविच की संस्थापिका हैं। सीएनएन पर पहली बार इनके इस्लाम अपनाने की जानकारी प्रकाशित हुई।
मैं मुस्लिम हूं लेकिन शुरू से मुस्लिम नहीं थी। 9/11 हादसे के दो माह बाद नवम्बर 2001 में मैंने इस्लाम कुबूल किया। उस वक्त मैं 21 साल की थी और लुइसियाना के बैटन रूज में रहती थी। यह मुसलमानों के लिए बुरा दौर था। चार साल के अध्ययन और वैश्विक धर्म इस्लाम और इसके अनुयायियों के खिलाफ दुष्प्रचार-प्रोपेगंडा के बावजूद मैंने इस्लाम अपनाने का फैसला किया।
यूनिवर्स से जुड़े सवाल
मैं कैथोलिक के रूप में बड़ी हुई, फिर मैं नास्तिक हो गई और अब मुसलमान बन गई हूं। इस्लाम की तरफ मेरा रुझाान पंद्रह साल की उम्र में ही होने लगा था और मैं अपने कैथोलिक धर्म से जुड़े विश्श्वासों पर सवाल करने लगी थी। लेकिन मेरी टीचर मुझसे कहती कि तुम अपने इस छोटे व प्यारे दिमाग को इस तरह की चिंता में मत डालो। लेकिन टीचर का यह जवाब मुझो संतोषप्रद नहीं लगता था। प्राकृतिक  धर्म, इंसान और यूनिवर्स से जुड़े सवाल मेरे दिलो दिमाग मेें घूमते रहते।
हर एक मामले में सवाल करने की आदत, जिज्ञासा, इतिहास और खोजबीन के बाद मैंने इस्लाम को पाया। मैंने जाना कि इस्लाम सिर्फ एक सभ्यता या किसी पंथ का नाम नहीं है और ना ही यह दुनिया के किसी इलाके विशेष तक ही सीमित रहने वाला मजहब है बल्कि इस्लाम तो ऐसा वैश्विक धर्म है जो सहिष्णुता, इंसाफ की सीख देता है और धैर्य, शील और संतुलन को बढ़ावा देता है। इस्लाम के अध्ययन के दौरान मेरी जिंदगी के कई पहलू इस्लाम से जुड़े महसूस हुए। मैं यह जानकर बेहद खुश हुई कि इस्लाम अपने अनुयायियों को मूसा, ईसा मसीह से लेकर मोहम्मद सल्ल. तक सब पैगम्बरों की इज्जत करने की सीख देता है। इन सब पैगम्बरों ने इंसानों को सिर्फ एक ईश्वर की इबादत करने का शिक्षा दी ताकि वे जिंदगी एक बेहतर और अच्छे मकसद के साथ गुजार सकें।
मुहम्मद सल्ल. की इस बात ने मेरे दिल और दिमाग पर गहरा असर छोड़ा कि 'इल्म हासिल करना हर मुस्लिम मर्द  और औरत के लिए जरूरी है।' मैं चकित रह गई कि कई मुसलमानों ने विज्ञान और तर्क शक्ति को अपनाया। अलजेबरा (बीज गणित) का ईजाद करने वाले अल-खवारिज्मी(Al-Khawarizmi), डा विन्सी से पहले हवाई जहाज की तकनीक विकसित करने वाले इब्न फिमास (Ibn Firnas) और मॉडर्न सर्जरी के पितामह माने जाने वाले अल-जाहरवी (Al-Zahravi) ऐसे ही मुस्लिम वैज्ञानिकों में शुमार हैं। इस्लाम मुझे अपने जवाब तलाशने और दुनिया में मेरे चारों तरफ बिखरे सवालों में अपनी बुद्धि इस्तेमाल करने के लिए प्रेरित कर रहा था। इस्लाम में दाखिला
यह वर्ष 2001 की बात है। मैंने कुछ वक्त के लिए इस्लाम अपनाने के ऐलान को टाल दिया था। दरअसल मैं डर गई थी कि लोग क्या सोचेंगे लेकिन मैं बेहद दुखी थी। जब 9/11 का हादसा हुआ तो हवाई जहाज के अपहर्ताओं की इस कार्रवाई ने मुझे डरा दिया। लेकिन इसके बाद मेरा ज्यादातर समय मुसलमानों और उनके धर्म के बचाव में गुजरा क्योंकि ज्यादातर लोग कुछ लोगों के इस अमानवीय कृत्य के दोष को दुनिया के सभी मुसलमानों के माथे मंड रहे थे। इस्लाम का मजबूत  पक्ष रखने और  इसका बचाव करते रहने से अब मेरा डर खत्म हो गया था, अब मैंने इस्लाम अपनाने और अपने इस्लामी भाई-बहनों से जुडऩे का फैसला किया। मेरा परिवार मेरे इस फैसले को समझ नहीं पाया लेकिन उन्हें ताज्जुब इसलिए नहीं हुआ क्योंकि उन्हें पता था कि मैं लंबे समय से धर्म का अध्ययन कर रही हूं। लेकिन ज्यादातर मेरी सुरक्षा को लेकर चिंतित थे। किस्मत से मेरे ज्यादातर दोस्त मेरे इस फैसले पर शांत थे और मेरे इस नए धर्म के बारे में जानने को लेकर उत्सुक थे।
हिजाब करने में मैं फख्र महसूस करती
मैं हिजाब (पर्दा) करने लगी और हिजाब करने में मैं फख्र महसूस करती। इस हिजाब को आप स्कार्फ भी कह सकते हैं। मेरे पर्दे ने ना पीठ पीछे मेरे हाथ बांधे और ना यह मेरे शोषण व उत्पीडऩ का कारण बना। पर्दा करने से ना मेरे विचारों पर किसी तरह का प्रतिबंध लगा और ना ही मेरे बोलने पर कोई अंकुश। लेकिन पहले पर्द को लेकर मेरी इस तरह की सकारात्मक सोच  नहीं थी। दरअसल इस्लाम के अध्ययन के दौरान एकदम से मेरे पूर्वाग्रह खत्म नहीं हुए थे। मैं सोचती थी पूर्वी देशों में पुरुष महिलाओं को अपनी सम्पत्ति समझ जोर-जबरदस्ती पर्दे में रखते हैं। लेकिन जब एक मुस्लिम महिला से पूछा- तुम पर्दा क्यों करती हो तो उसका जवाब था-'अल्लाह की खुशी के लिए यानी ईश्वर के आदेश के कारण। ताकि मैं ऐसी महिला के रूप में पहचानी जाऊं जिसकी इज्जत और सम्मान किया जाना चाहिए ना कि छेड़छाड़ या शोषण। इससे मैं पुरुषों की घूरने वाली निगाहों से बची  रहती हूं।' उसका यह जवाब स्पष्ट और असरकारक था। उसने मुझे समझााया कि 'पर्दे जैसी शालीन डे्रस एक ऐसा प्रतीक है जिससे  दुनिया को यह मैसेज मिलता है कि औरत का बदन आम लोगों के लिए उपभोग, उत्पीडऩ और छींटाकशी का सामान नहीं है।' हालांकि अभी तक मैं उसकी बात से सहमत नहीं थी इसलिए मैंने आगे उससे कहा- 'आपके धर्म में तो औरत के साथ दोयम दर्जे के नागरिक जैसा बर्ताव किया जाता है।' उस मुस्लिम महिला ने बड़े धैर्य के साथ मुझे बताया कि 'उस दौर में जब पाश्चात्य मुल्कों में औरत को पुरुष की प्रोपर्टी समझा जाता था, ऐसे दौर  में इस्लाम ने मैसेज दिया कि अल्लाह की नजर में मर्द  और औरत एक समान हैं। दोनों का दर्जा बराबर है। इस्लाम ने शादी के मामले में महिला की सहमति को अनिवार्य बनाया, उसे विरासत में हक दिया, अपनी सम्पति रखने, व्यापार करने का अधिकार दिया।' उस मुस्लिम महिला ने एक के बाद एक कई ऐसे अधिकार गिनाए जो इस्लाम ने महिला को दिए और साथ  ही बताया कि 'जब पाश्चात्य देशों में महिला-अधिकारों के बारे में सोचा गया था उससे लगभग साढे बारह सौ साल पहले ही इस्लाम ने औरत को यह सब अधिकार दे दिए थे।' आश्चर्यजनक रूप से इस्लाम मुझे ऐसा मजहब नजर आया जो मेरी  महिलावादी सोच के अनुकूल था।
नवमुस्लिम से ही शादी
शायद आपको जानकर हैरत हो कि मैंने अरेंज्ड मैरिज की है। इसके मायने यह नहीं है कि मेरे पिताजी ने दबाव डालकर मेरी शादी की है। जब मैंने इस्लाम अपनाया, उस वक्त मुसलमानों के लिए बेहतर माहौल नहीं था। अपने समाज द्वारा अलग कर दिए जाने से मैं सिमटकर रह गई थी और मैं अब अपना परिवार बसाना चाहती थी। हालांकि मुसलमान बनने से पहले ही मैं शादी को लेकर सीरियस थी और अपने लिए संजीदा रिश्ता चाहती थी लेकिन मुझे चंद आदमी ही ऐसे मिले। मुसलमान बनने के बाद मुझे लगा कि जिंदगीभर साथ निभाने वाला जीवनसाथी और संजीदा रिश्ता अब मेरे लिए आसान  होगा। मैंने तय किया कि मैं अपनी तरह इस्लाम अपनाने वाले किसी नवमुस्लिम से ही शादी करूंगी। मेरे दोस्तों के माता-पिता का अच्छा सहयोग रहा और मेरी यह तलाश पूरी हुई। मैं खुश हूं कि इस्लाम ने मुझे पति के रूप में बेहतर इंसान दिया। हम पति-पत्नी खुशहाल जिंदगी जी रहे हैं।
मुसलमान तो अमन पसंद होते हैं
इस्लाम की तरफ मेरे सफर के दौरान मैंने जाना कि मुस्लिम विभिन्न रंग-रूप, विभिन्न सभ्यता, देश, नजरिए वाले देखने को मिलेंगे। इस्लाम हमें सिखाता है कि आप किसी की बात से असहमत हैं तो इसके मायने यह कतई नहीं कि आप उसका अपमान करें। अधिकतर मुस्लिम शांति पसंद करते हैं। कुछ मुस्लिम हैं जो अपने राजनीतिक फायदे के लिए इस्लाम को गलत रूप में पेश करते हैं। अमरीकी लोग इन्हीं चंद मुस्लिमों को इस्लाम के प्रतिनिधि के रूप में समझकर इस्लाम के बारे में गलत धारणा बना लेते हैं। मुझे यकीन है कि मेरे अमरीकी साथी घृणा और दुश्मनी की सोच से ऊपर उठेंगे और इस बात को समझेंगे कि मुसलमान अमन पसंद होते हैं।

26.1.16

ये मुसलमान जानवरों को निर्दयता से धीरे-धीरे कष्ट देकर क्यों ज़बह करते हैं?

जानवरों को ज़बह करने के इस्लामी तरीके़ पर जिसे ‘ज़बीहा’ कहा जाता है, बहुत से लोगों ने आपत्ति की है। इस संबंध में हम निम्न बिन्दुओं पर विचार करते हैं जिनसे यह तथ्य सिद्ध होता है कि ज़बह करने का इस्लामी तरीक़ा मानवीय ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि से भी श्रेष्ठ है
 जानवर को ज़बह करने का इस्लामी तरीक़ा
इस्लामी तरीके़ से जानवर को ज़बह करने हेतु निम्न शर्तें पूरी करना आवश्यक है—
जानवर को तेज़ छुरी से ज़बह करना चाहिए ताकि उसे कम से कम पीड़ा हो।
जानवर को गले की तरफ़ से ज़बह करना चाहिए इस प्रकार कि हलक़ (कण्ठ, Throat) और गर्दन की ख़ूनवाली नसें कट जाएँ, मगर गर्दन के ऊपर का हिस्सा, जिसका संबंध रीढ़ की हड्डी से है, न कटे। सिर को अलग करने से पहले ख़ून को पूर्णरूप से बहने देना चाहिए क्योंकि उसमें जीवाणु होते हैं। अगर रीढ़ की हड्डी वाले हिस्से को जानवर के मरने से पहले काट दिया जाएगा तो इस स्थिति में सारा ख़ून निकलने से पहले ही वह मर जाएगा और ख़ून उसके मांस में जम जाएगा जिसके कारण मांस स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो जाएगा।
 ख़ून कीटाणुओं और जीवाणुओं का स्रोत है
रक्त में कीटाणु, जीवाणु, विषाणु इत्यादि पाए जाते हैं, इसलिए ज़बह करने का इस्लामी तरीक़ा अधिक स्वच्छ होता है क्योंकि अधिकांश ख़ून जिसमें कीटाणु, जीवाणु इत्यादि पाए जाते हैं, जो मांस खाने वाले के लिए अनेक रोगों का कारण बनते हैं, इस प्रक्रिया से बह जाते हैं।
मांस लंबे समय तक ताज़ा रहता है
दूसरे ढंग की अपेक्षा इस्लामी ढंग से ज़बह किया हुआ मांस लंबे समय तक ताज़ा रहता है, क्योंकि मांस में ख़ून की मात्रा लगभग नहीं के बराबर बाक़ी रह जाती है। 
जानवर पीड़ा महसूस नहीं करते
गर्दन की नली को तेज़ी से काटने से मस्तिष्क से जुड़ी नाड़ी की तरफ़ रक्त का बहाव बंद हो जाता है। यह नाड़ी पीड़ा का स्रोत है। अतः जानवर पीड़ा अनुभव नहीं करता। मरते समय जानवर संघर्ष करता है, कराहता है और लात मारता है ऐसा पीड़ा के कारण नहीं होता बल्कि शरीर से रक्त बह जाने के कारण पट्ठों के सुकड़ने और फैलने से होता है।

25.1.16

मुहम्मद सल्ल का व्यवहार पूरी इंसानियत के लिए नमूना

पैगम्बर मुहम्मद सल्ल का व्यवहार पूरी इंसानियत के लिए नमूना है। 
उनके व्यवहार के कुछ उदाहरणों से जानिए की आपका व्यवहार कितना दिलकश और आत्मीयता लिए होता था।

24.1.16

पर्दे में मेरी ज्यादा इज्जत की जाती है

                               नोरा जेसमीन- सिंगापुर

                      इस्लाम अपनाने वाली नोरा जेसमीन की जुबानी
मेरा नाम नोरा जेसमीन है। मैं सिंगापुर से हूं और मैंने चीनी कल्चर छोड़कर इस्लाम अपनाया है। अपने कुछ करीबी दोस्त, मेरे पति, उनका परिवार, मेरा परिवार खासतौर पर मेरी मां की मदद से मैंने 11 मई 2013 को इस्लाम अपनाया। मेरी मां ने इस बात को माना कि मुझे भी इस्लाम अपना लेना चाहिए हालांकि वह खुद कठिन समय का सामना कर रही थी। मैं अपनी मां की बेहद अहसानमंद हूं कि उसने मेरी जिंदगी के इस अहम बदलाव की घड़ी में मेरा साथ दिया। अल्लाह का लाख-लाख शुक्रं है कि उसने इस्लाम की तरफ आने के मेरे सफर को आसान बनाया।
जब से मुसलमान हुई तब से आज तक हिजाब न पहनने की बात मेरे दिमाग में कभी नहीं आई। हालांकि कुछ कारणों जैसे - 'कुछ वक्त इंतजार  करो जब तक हमारे बच्चे नहीं हो जाते' या  'मैं अभी इसके लिए तैयार नहीं हूं।'  के चलते इस्लाम अपनाने के साल भर बाद तक मैंने हिजाब नहीं पहना। हालांकि बहु-नस्लीय मुल्क सिंगापुर में रहने के कारण मेरे दिमाग में डर भी था कि मेरे इर्द-गिर्द वाले लोग मेरे पर्दे करने को स्वीकार नहीं कर पाएंगे। जब कभी मैं पर्दा करने की सोचती तो  निराश हो जाती और मेरे दिल की धड़कन बढऩे लगती।
  एक दिन एक अप्रेल 2014  को मैं अपने पति के साथ पहली बार मस्जिद गई। मैं नर्वस थी क्योंकि मैं नहीं जानती थी कि मस्जिद में किन बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए और मस्जिद में किस तरह के दिशा-निर्देशों का पालन जरूरी है। पति के कुछ बातें समझाने के बावजूद मैं असहज थी। अल्लाह का शुक्र है कि मैंने वहां मगरिब की नमाज अदा की और वहां मैंने सुकून महसूस किया। फिर मैं अगले कुछ हफ्ते और मस्जिद गई तो मुझे महसूस हुआ कि मस्जिद में आने वाली अन्य औरतों की तरह मुझे भी यहां हिजाब पहनकर आना चाहिए।     मुझे दिल में इस बात का मलाल हुआ कि आखिर मैंने पर्दा करने में साल भर की देरी क्यों कर दी। मेरे पति मेरे बहुत मददगार थे और उन्होंने मुझे इजाजत दे रखी थी कि इस्लाम के मामले में मुझे दिली इत्मीनान हो जाने पर ही मैं इन सब पर अमल करूं।
  एक दिन मैंने वल्र्ड हिजाब डे फेसबुक पेज पर '30 दिनों के लिए हिजाब की चुनौती' कैम्पेन में हिस्सा लेने का इरादा किया और सोचा कि रमजान महीने के दौरान इस कैम्पेन में हिस्सा लेकर हिजाब पहनना दिलचस्प और उत्साहवद्र्धक रहेगा। मैंने अपनी मां, पति और अपने दोस्तों को बताया कि मैं अब हिजाब पहनना शुरू कर रही हूं। अल्लाह का शुक्र है कि पहले रोजे को पूरे दिन मैंने हिजाब पहने रखा। अल्लाह का बेहद अहसान है कि वह मुझे फिर से अपने करीब लाया।
मैं पर्दे में खुद को पहले की तुलना में अधिक सुरक्षित महसूस करती हूं और पर्दे में मेरी ज्यादा इज्जत की जाती है।  मुझे मुस्लिम होने पर गर्व है। मेरे पति को बेहद आश्चर्य हुआ कि इस्लाम अपनाने के एक साल बाद ही मैंने पर्दा करना शुरू कर दिया। मुझे बेहद खुशी है कि मैंने अपनी इच्छा से इस्लाम का रास्ता अपनाया उस अल्लाह के लिए, उस एक पालनहार के लिए।
मैं अपनी बहनों से कहना चाहूंगी कि अगर आप भी मेरे शुरू के एक साल की तरह दुविधा में है तो अल्लाह से मदद मांगे, दुआ करें, अल्लाह आपका रास्ता आसान फरमाएगा। अल्लाह हमें परेशानी में अकेला कभी नहीं छोड़ता बल्कि हमारी राह आसान करता है।