15.9.14

मुझे मेरी जिंदगी का मकसद मिल गया-जीनेशा बिंगम


अमेरिकी पूर्व नौसैनिक जीनेशा  की इस्लाम अपनाने की दास्तां।

जीनेशा बिंगम (जीनेशा ने इस्लाम अपनाने के बाद आइशा नाम रखा है) अमेरिकी नौसेना में एक सैनिक के रूप में कार्यरत्त  थी। जीनेशा की जिंदगी में कई तरह के उतार चढ़ाव आए। उनका जीवन बाल्यवस्था में यौन शोषण से गुजरते हुए, फिर अफगानिस्तान के युद्ध क्षेत्र से लास वैगास के नाइट क्लब होते हुए अस्पताल के बिस्तर पर इस्लाम अपनाकर सुकून हासिल करते हुए आगे बढ़ता है। 
जीनेशा की जुबां से जानिए उनकी इस्लाम अपनाने की कहानी।

मेरा नाम जीनेशा बिंगम (इस्लाम अपनाने के बाद जीनेशा बिंगम) है। मैं मोरमन कैथोलिक ईसाई धर्म में पैदा हुई। मैं पच्चीस साल की हूं। मैं अमेरिका के लास वेगास शहर में जन्मी,पली बढ़ी और कॉलेज की पढ़ाई की।
मेरा पारिवारिक माहौल बेहद गंदा था। मेरे पिता अक्सर मुझे झिाड़कते और पीटते थे। मेरी मां मुझे उनके उत्त्पीडऩ से बचाने में लगी रहती थी। पिता मेरी मां की भी पिटाई करते थे। मेरे दादा यौनाचारी थे। मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि  वे मुझे अपनी हवस का शिकार बना सकते हैं। मेरे दादा ने मेरी मां, मेरी बहिन और मेरे साथ बलात्कार किया। जब भी मेरे पिता शराब पीए हुए होते तो हम समझ लेते थे कि घर में हम में से कोई ना कोई जख्मी जरूर होगा। मेरे पिता मुझे लज्जित करने के लिए मेरे रिश्तेदारों और मित्रों के सामने बुरी तरह पीटते थे। मैं अक्सर सोचती ईश्वर मेरे साथ आखिर ऐसे क्यों होने दे रहा है। ऐसे उत्पीड़क और घुटनभरे माहौल में मैं बड़ी  हुई। जब मैं चौदह साल की हुई तो मेरी मां हम भाई बहिनों को लेकर घर छोड़कर आ गई। जिस रात हम निकले हमारे पिता ने हमें गाड़ी से कुचलने की कोशिश की। पिता से छुटकारा लेकर हम पांचों एक महान शख्स की शरण में चले गए। उस शख्स ने हम भाई-बहिनों को अपनी संतान की तरह रखा। यहां हमें ऐसा लगा मानों हम ईश्वर की कृपा में आ गए। यह शख्स नास्तिक होने के बावजूद भला आदमी था।
इस बीच मैंने हाई स्कूल पास किया और मैं नौ सेना में भर्ती हो गई। मैं छठी मेरीन बटालियन की एक टुकड़ी में रेडियो ऑपेरटर थी। यह बटालियन अमेरिका की सबसे ज्यादा प्रतिष्ठित बटालियन होने के साथ ही खतरनाक जंग में हिस्सा लेने की काबिलियत रखती थी। हमारी बटालियन को मार्च 2008 में अफगानिस्तान के गार्मसिर में तालिबान से लडऩे के लिए भेजा गया। हमारी तालिबानियों से चार महीने तक  जंग चलती  रही। इसी जंग में हमारी एक साथी को गोली लगी। हमें आदेश मिला कि उस साथी की मदद की जाए ताकि उसे मेडिकल सहायता उपलब्ध कराई जा सके। दोनों तरफ गोलीबारी के बीच हम अपने साथी को बचाने की कोशिश के बीच ही एक गोली मेरे चेहरे के नजदीक से दनदनाती हुई गुजरी। गोली नजदीक से गुजरने से मुझे दो दिनों तक अपने बाएं कान से कुछ भी सुनाई नहीं दिया। मुझे लगा मानो मौत मुझे छूकर चली गई हो। हमारे टीम लीडर ने हमें बता रखा था कि युद्ध के मोर्चे पर किसी को भी नास्तिक नहीं रहना चाहिए। मैं गोलीबारी के बीच आगे बढ़ती रही और ईश्वर से प्रार्थना करती रही कि वह मेरी हिफाजत करे। हालांकि सच्चाई यह है कि  उस वक्त ईश्वर में मेरी सच्ची आस्था नहीं थी। हम उस घायल नौसेनिक को स्टे्रचर पर लेकर आगे बढ़े। मैंने उस घायल सैनिक को देखकर महसूस किया मानो उसकी आत्मा उसके शरीर को छोड़कर बाहर आ रही हो।